मंगलवार, 20 मार्च 2012

nirasha se aasha ki or badhte kadam

                        एक उत्साहपूर्ण कदम बढाया , जीवन चलने का नाम है यही कहा  जाता है, पर क्यों बहुत कुछ अधूरा रह जाता है । कभी इतनी निराशा हो जाती है कि कोई मार्ग नजर ही नहीं आता । बंद हो जाते है सभी रास्ते  , अपने भी बेगाने लगने लगते हैं । ऐसा लगता है जैसे हर कोई हँसता है चाहे वो निगाहें अच्छी क्यों न हो पर वो भी चिढाती नजर आती है । शायद सोंच यहीं पर आकर स्थिर हो जाता है और हम अपनी दुनिया सीमित कर अपनी सोंच को भी सीमित कर लेते हैं ।

                          किसी ने कहा मेरे जीवन में बहुत सारे फूल खिले पर अपना कोई नहीं लगा क्यों ? क्या मैंने   उन्हें अपनाया नहीं या वे मेरे हो ही नहीं सके ?

                           सवाल का जबाब भी था मेरे पास पर ऐसा लग रहा था जैसे उत्तर अपना नहीं पराया हो , बहुत उदासी छा जाती है कुछ प्रश्नों के उत्तर ढूढने में । तर्क -बितर्क में जीवन के बहुत से रहस्य अपने आप खुल जाते है । हम अपने लिए बहुत कुछ चाहते हैं पर जरुरी तो नहीं कि हर चीज हमें मिल ही जाय। पर मन ये मानने के लिए तैयार ही नहीं होता ।

                             निराशा तो सभी के जीवन में कभी न कभी आती है लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि आदमी  हार कर बैठ जाय । संघर्ष तो करना ही होगा क्योंकि यही जीवन कि वास्तविकता है । यह भी सही है कि समझाना आसान है पर अमल में लाना मुश्किल ।

                      और अंत में
                                         कदम बढ़ा कि रस्ते खुद ही बनते जायेगे
                                         जो कांटे भी होंगे तो वे भी फूल बनते जायेंगे
                                        हो हौसला तो आग का दरिया भी पार कर सकेंगे
                                        जीवन की चुनैतियों से हम खुद ही लड़ सकेंगे  ।
                                      
 

                           

                      

शनिवार, 3 मार्च 2012

महिला सशक्तिकरण वास्तविकता की ओर

                          बहुत कुछ बोला जा रहा है और स्पष्ट भी हो रहा है , महिलाएं हर ओर कामयाबी के झंडे गाड़ रही हैं , समय की गति के साथ महिलाओं ने भी चलना सीख लिया है । अबला से सबला की ओर बढ़ते उनके कदम आसान नहीं रहे और न ही निर्विघ्न । रास्ते मिलते गए और उनपर आती बाधाओं ने मार्ग अवरुद्ध भी किया लेकिन हौसला ऐसा रहा कि कदम बढ़ते चले गए।
                       हम उस देश नारी है जहाँ की आदर्श सीता हैं, सावित्री हैं । आज भी हमें यही आशीर्वाद दिया जाता है कि हम सीता की तरह धैर्यवान बने , सहनशील बने , अपना जीवन औरों के लिए समर्पित कर दें । हमारा भारतीय समाज आज भी एक आदर्श बहु और बेटी की कल्पना करता है लेकिन यह भी सही है कि अब भारतीय नारी बदल रही है । उसके आदर्श आज भी सीता ही है परन्तु वह सीता की तरह अन्याय को चुपचाप नहीं सहती है , आवाज उठाने लगी है , अपने  हक़ को पाने के लिए परिवार और समाज को खुलेआम चुनौती दे रही है । संघर्ष में वह अपना आदर्श सावित्री और झाँसी की रानी को मान रही है तो शालीनता में सीता को । संघर्ष उसके जीवन कसौटी है तथा वह इसमे सफल  होने के लिए कुछ भी कर सकती है। 
                    एक डाक्टर की पत्नी जो किसी विद्यालय में टीचर है , अपने पति के साथ रहने के लिए संघर्ष कर रही है , जबकि पति किसी और स्त्री को पसंद करता है और इसे तलाक देकर दूसरी शादी करना चाहता है। मै उनसे पूछी कि जब आपका पति किसी और के साथ रहना चाहता है तो आप उससे स्वयं अलग हो जाय। इस पर उसका जबाब बड़ा ही सटीक मुझे मिला ---------"अगर उसे मेरे साथ नहीं रहना था तो शादी क्यों की? मेरे साथ बिताये मेरे कीमती दस साल मुझे वापस क्र दे मैं भी उसका साथ छोड़ दूंगी।" मै भी उसके जज्बे को सलाम कर उसकी सहयोगी बन गयी हूँ , तो यही है नारी सशक्तिकरण। 
                भले ही समाज तरक्की कर रहा है लोगों के सोंच बदल रहे हैं लेकिन सम्स्यें भी वही हैं  , चाहे वो घरेलू हिंसा हो, या फिर दहेज़ की मार या फिर ऑफिस में शोषण , संघर्ष जारी है। अब नारी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ रही. इसका उदहारण बिहार में मिल जायेगा। यहाँ की महिलाएं पंचायत से लेकर उच्च स्तर तक अपनी पहुँच बना रही हैं।  सदियों से शोषित समाज की बालिकाएं साईकिल से विद्यालय जा रही हैं । अभी बिहार में आयोजित विश्व महिला कबड्डी , महिलाओं की बदलती सोंच की ओर बढ़ता एक और कदम है।