बुधवार, 4 जून 2014

          बंधन 
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बहुत  ऊँची  उड़ान उड़नी थी उसे
नीले आकाश की ऊँचाइयों में
स्वछंद होकर घूमना था
देखी थी उसने नील गगन को
कई बार घोंसले से निकलकर
नजरें  जब भी ऊँची करती
और भी खूबसूरत दिखता आसमान 
कोई बंधन नहीं था वहाँ
इस छोटे से दरख़्त पर फुदकना
अपने खूबसूरत पंखों को फैलाना
बस  यहीं तक सीमित नहीं रहना था उसे
माप लेना चाहती थी आसमान को
स्वछंद होकर बादलों के बीच उड़ना था उसे 

माँ की अनुभवी आँखें
उसके ख़्वाबों को जान चुकी थी
एक-एक कदम बढ़ाने की हिदायत देती
पर वह तो ठान चुकी थी
आजादी से उड़ने  की
बंधन  मुक्त होने की
उसकी खूबसूरती की लोलुप नजरें
कब से उसे घूर रही थी
दबोचने की चाह में
पर बेखबर वह बेचैन थी

बादलों से बातें करने की चाहत
उसे और भी व्यग्र बनाती
 आखिर एक दिन उड़  चली
अपनी ख्वाहिश पूरी करने
और दबोच ली गयी
शैतानी पंजों में  
तड़पती उसकी जिंदगी 
और दम तोड़ती ख्वाहिशें 
नजर आने लगा उसे 
नीला आसमान बिल्कुल काला 
बदरंग और बन्धनयुक्त ………… 



हमारी बेटियों के लिए यह रचना ………… 





8 टिप्‍पणियां:

  1. बस हम संस्कारों के नाम का रोना रोतें हैं.. जब कुछ करने की बारी आती है तो हम अपनी इज़्ज़त का रोना रोते हैं.
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  2. उम्दा अभिव्यक्ति प्रतिभा जी ऊँचे सपनो और उड़ान के बाद भी आज बेटियां क्रूर बाजों से सुरक्षित नहीं है

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  3. इन शैतानी पंजों से कैसे सतर्क और सावधान रहना है इसकी क्षमता हमें अपनी बेटियों में विकसित करनी होगी ! सुंदर रचना !

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