शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

एक कली अभी तो खिली थी

 एक कली अभी तो खिली थी


 अभी अभी  तो खिली थी
वो एक उपवन की कली  थी
कुछ अलग किस्म की बनी थी 
दुनिया को समझने चली थी 


 एक भौंरा कुछ बौराया
 उपवन  से ही मंडराया था 
  उस कली को घूरता  रहता था                                     
 कुछ  गन्दी नीयत  रखता था 
                                     
            
एक  ऐसी आंधी आई थी 
वो कली उसमे उलझाई थी 
 लड़ते - लड़ते थक आई थी 
फिर भी हिम्मत ना  हारी थी 


ताकत के आगे बेबस थी 
उसकी दुनिया अब उजड़ी थी 
जीने की चाहत अब भी थी 
अंधियारी में भी रोशनी थी 
एक कली अभी तो खिली थी ............................ 

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